किशोरावस्था की परिभाषा

किशोरावस्था की परिभाषा
किशोरावस्था शब्द अंग्रजी भाषा के Adolescence शब्द का हिंदी पर्याय है। Adolescence शब्द का उद्भव लेटिन भाषा से माना गया है जिसका सामान्य अर्थ है बढ़ाना या विकसित होना। बाल्यावस्था से प्रौढ़ावस्था तक के महत्वपूर्ण परिवर्तनों जैसे शारीरिक, मानसिक एवं अल्पबौधिक परिवर्तनों की अवस्था किशोरावस्था है। वस्तुतः किशोरावस्था यौवानारम्भ से परिपक्वता तक वृद्धि एवं विकास का काल है। 10 वर्ष की आयु से 19 वर्ष तक की आयु के इस काल में शारीरिक तथा भावनात्मक सरूप से अत्यधिक महवपूर्ण परिवर्तन आते हैं। कुछ मनोवैज्ञानिक इसे 13 से 18 वर्ष के बीच की अवधि मानते हैं, जबकि कुछ की यह धारणा है कि यह अवस्था 24 वर्ष तक रहती है। लेकिन किशोरावस्था को निश्चित अवधि की सीमा में नहीं बांधा जा सकता। यह अवधि तीव्र गति से होने वाले शारीरिक परिवर्तनों विशेषतया यौन विकास से प्रारंभ हो कर प्रजनन परिपक्वता तक की अवधि है। विश्व स्वस्था संगठन के अनुसार यह गौण यौन लक्षणों (यौवानारम्भ) के प्रकट होने से लेकर यौन एवं प्रजनन परिपक्वता की ओर अग्रसर होने का समय है जब व्यक्ति मानसिक रूप से प्रौढ़ता की ओर अग्रसर होता है और वह सामाजिक व आर्थिक दृष्टी से उपेक्षाकृत आत्मा-निर्भर हो जाता है जिससे समाज में अपनी एक अलग पहचान बनती है।

किशोरावस्था तीव्र शारीरिक भावनात्मक और व्यवहार सम्बन्धी परिवर्तनों का काल है। यह परिवर्तन शरीर में उत्पन्न होने वाले कुछ हारमोंस के कारण आते हैं जिनके परिणाम स्वरुप कुछ एक ग्रंथियां एकाएक सक्रिय हो जाती है। ये सब परिवर्तन यौन विकास के साथ सीधे जुड़े हुए हैं क्योंकि इस अवधि में गौण यौन लक्षणों के साथ-साथ बहुत महत्वपूर्ण शारीरिक परिवर्तन होते हैं। किशोर बात-बात में अपनी अलग पहचान का आग्रह करते हैं और एक बच्चे की तरह माता-पिता पर निर्भर रहने की उपेक्षा एक प्रौढ़ की तरह स्वतंत्र रहना चाहते हैं। वे अपने माता-पिता से थोड़ा दूरी बनाना शुरू कर देते हैं और अपने सम-आयु समूह (Pear Group) में ही अधिकतर समय व्यतीत करने लगते हैं। यौन-उर्जस्विता के कारण वे विपरीत लिंग की ओर आकर्षित होते हैं। इस प्रकार किशोरावस्था का मानव जीवन में एक विशिष्ट स्थान है।

व्यवहारिक परिवर्तन
उपयुक्त परिवर्तनों के कारण किशोरों के व्यवहार में निम्न लक्षण उजागर होते हैं -

अ) स्वतन्त्रता
शारीरिक, मानसिक और सामाजिक परिपक्वता की प्रक्रिया से गुजरते हुए किशोरों में स्वतंत्र रहने की प्रवृति जाग्रत होती है। जिससे वे अपने आप को प्रौढ़ समाज से दूर रखना प्रारंभ करते हैं।

आधुनिक युग का किशोरे अलग रूप से ही अपनी संस्कृति का निर्माण करना चाहता है जिसे उप संस्कृति का नाम दिया जा सकता है। यह उप-संस्कृति धीरे-धीरे समाज में विधमान मूल संस्कृति को प्रभावित करती है।

ब) पहचान
किशोर हर स्तर पर अपनी अलग पहचान बनाने केलिए संघर्ष करते हैं। वे अपनी पहचान बनाए रखें के लिए लिंग भेद तथा अपने को अन्य से उच्च एवं योग्य दर्शाने के प्रयास में होते हैं।

स) धनिष्ठता
किशोरावस्था के दौरान कुछ आधारभूत परिवर्तन होते हैं। ये परिवर्तन अधिकतर यौन संबंधों के क्षेत्र के होते हैं। किशोरों में अचानक विपरीत लिंग के प्रति रुचि उत्पन्न होती है। वे आकर्षण एवं प्रेम के मध्य अंतर स्पष्ट नहीं कर पाते और मात्र शारीरिक आनंद एवं संतुष्टि के लिए सदैव भटके रहते हैं।

समवय समूहों पर निर्भरता
अपनी पहचान व स्वतन्त्रा को बनाए रखने के लिए, किशोरे अपने माता-पिता के भावनात्मक बंधनों को त्याग कर अपने मित्रों के साध ही रहना पसंद करते हैं। परन्तु समाज लड़के-लड़कियों के स्वतन्त्र मेलजोल को स्वीकृत नहीं करता। किशोरों का प्रत्येक वर्ग अपने लिंग से सम्बंधित एक अलग समूह बनाकर अलग में रहना पसंद करता है। इस तरह की गतिविधियाँ उन्हें समवाय समूहों पर निर्भर रहने के लिए प्रोत्साहित करती है। यहीं से ही वे अपने परिवर्तित व्यवहार के प्रति समर्थन एवं स्वीकृति प्राप्त करते हैं।

बुद्धिमता
बौद्धिक क्षमता का विकास भी किशोरों के व्यवहार से प्रदर्शित होता है। उनमें तथ्यों पर आधारित सोच-समझ व तर्कशील निर्णय लेने की क्षमता उत्पन्न होती है। ये सभी कारण उनमें आत्मानुभूति को विकास करते हैं।

किशोरावस्था की प्रवृतियां एवं लक्षण
मानव विकास की चार अवस्थाएं मानी गयी हैं बचपन, किशोरावस्था,युवावस्था और प्रौढावस्था। यह विकास शारीरिक, मानसिक और सामाजिक रूप में होता रहता है। किशोरावस्था सबसे अधिक परिवर्तनशील अवधी है। किशोरावस्था के निम्लिखित महत्वपूर्ण लक्षण इसकी अन्य अवस्थाओं से भिन्नता को प्रकट करते हैं-

क) शारीरिक परिवर्तन
किशोरावस्था में तीव्रता से शारीरिक विकास और मानसिक परिवर्तन होते हैं। विकास की प्रक्रिया के कारण अंगों में भी परिवर्तन आता है,जो व्यक्तिगत प्रजनन परिपक्वता को प्राप्त करते हैं। इनका सीधा सम्बन्ध यौन विकास से है।

ख) मनौवैज्ञानिक परिवर्तन
किशोरावस्था मानसिक, भौतिक और भावनात्मक परिपक्वता के विकास की भी अवस्था है। एक किशोर, छोटे बच्चे की तरह किसी दूसरे पर निर्भर रहने की उपेक्षा, प्रौढ़ व्यक्ति की तरह स्वतंत्र रहने की इच्छा प्रकट करता है। इस समय किशोर पहली बार तीव्र यौन इच्छा का अनुभ करता है, इसी कारण विपरीत लिंग के प्रति आकर्षित रहता है। इस अवस्था में किशोर मानसिक तनाव से ग्रस्त रहता है यह अवस्था अत्यंत संवेदनशील मानी गयी है।

ग) सामाजिक सांस्कृतिक परिवर्तन
किशोरों में सामजिक-सांस्कृतिक मेलजोल के फलस्वरूप कुछ और परिवर्तन भी आते हैं। सामान्यता: समाज किशोरों की भूमिका को निश्चित रूप में परिभाषित नहीं करता। फलस्वरूप किशोर बाल्यावस्था और प्रौढावस्था के मध्य अपने को असमंजस की स्थिति में पाते हैं। उनकी मनौवैज्ञानिक आवश्यकताओं को समाज द्वार महत्व नहीं दिया जाता, इसी कारण उनमें क्रोध, तनाव एवं व्यग्रता की प्रवृतिया उत्पन्न होती हैं। किशोरावस्था में अन्य अवस्थाओं की उपेक्षा उत्तेजना एवं भावनात्मकता अधिक प्रबल होती है।

  • किशोरावस्था की समस्याएं
किशोरावस्था एक ऐसी संवेदनशील अवधि है जब व्यक्तित्व में बहुत महत्वपूर्ण परिवर्तन आते हैं। वे परिवर्तन इतने आकस्मिक और तीव्र होते हैं कि उनसे कई समस्याओं का जन्म होता है। यघपि किशोर इन परिवर्तनों को अनुभव तो करते हैं पर वे प्राय: इन्हें समझने में असमर्थ होते हैं। अभी तक उनके पास कोई ऐसा स्रोत उपलब्ध नहीं है जिसके माध्यम से वे इन परिवर्तनों के विषय में वैज्ञानिक जानकारी प्राप्त कर सकें। किन्तु उन्हें इन परिवर्तनों और विकास के बारे में जानकारी चाहिए, इसलिये वे इसके लिए या तो सम-आयु समूह की मदद लेते हैं, या फिर गुमराह करने वाले सस्ते साहित्य पर निर्भर हो जाते हैं। गलत सूचनाएं मिलने के कारण वे अक्सर कई भ्रांतियों का शिकार हो जाते हैं जिससे उनके व्यक्तित्व विकास पर कुप्रभाव पड़ता है।

किशोरों को इसलिये भी समस्याएं आते है क्योंकि वे विपरीत लिंग के प्रति एकाएक जाग्रत रुचि को ठीक से समझ नहीं पाने। माँ बाप से दूर हटने की प्रवृति और सम-आयु समूह के साथ गहन मेल-मिलाप भी उनके मन में संशय और चिंता पैदा करता है। किन्तु परिजनों के उचित मार्गदर्शन के अभाव में उन्हें सम-आयु समूह की ही ओर उन्मुख होना पड़ता है। प्राय: देखा गया है कि किशोर सम-आयु समूह के दबाव के सामने विवश हो जाते हैं और उन में से कुछ तो बिना परिणामों को सोचे अनुचित कार्य करने पर मजबूर हो जाते हैं। कुछ सिगरेट, शराब, मादक द्रव्यों का सेवन करने लगते हैं और कुछ यौनाचार की ओर भी आकर्षित हो जाते हैं और इस सब के पीछे सम-आयु समूह का दबाव आदि कई कारण हो सकते हैं।


किशोरावस्था मनुष्य के जीवन का बसंतकाल माना गया है। यह काल बारह से उन्नीस वर्ष तक रहता है, परंतु किसी किसी व्यक्ति में यह बाईस वर्ष तक चला जाता है। यह काल भी सभी प्रकार की मानसिक शक्तियों के विकास का समय है। भावों के विकास के साथ साथ बालक की कल्पना का विकास होता है। उसमें सभी प्रकार के सौंदर्य की रुचि उत्पन्न होती है और बालक इसी समय नए नए और ऊँचे ऊँचे आदर्शों को अपनाता है। बालक भविष्य में जो कुछ होता है, उसकी पूरी रूपरेखा उसकी किशोरावस्था में बन जाती है। जिस बालक ने धन कमाने का स्वप्न देखा, वह अपने जीवन में धन कमाने में लगता है। इसी प्रकार जिस बालक के मन में कविता और कला के प्रति लगन हो जाती है, वह इन्हीं में महानता प्राप्त करने की चेष्टा करता और इनमें सफलता प्राप्त करना ही वह जीवन की सफलता मानता है। जो बालक किशोरावस्था में समाज सुधारक और नेतागिरी के स्वप्न देखते हैं, वे आगे चलकर इन बातों में आगे बढ़ते है।

पश्चिम में किशोर अवस्था का विशेष अध्ययन कई मनोवैज्ञानिकों ने किया है। किशोर अवस्था काम भावना के विकास की अवस्था है। कामवासना के कारण ही बालक अपने में नवशक्ति का अनुभव करता है। वह सौंदर्य का उपासक तथा महानता का पुजारी बनता है। उसी से उसे बहादुरी के काम करने की प्रेरणा मिलती है।

किशोर अवस्था शारीरिक परिपक्वता की अवस्था है। इस अवस्था में बच्चे की हड्डियों में दृढ़ता आती है; भूख काफी लगती है। कामुकता की अनुभूति बालक को 13 वर्ष से ही होने लगती है। इसका कारण उसके शरीर में स्थित ग्रंथियों का स्राव होता है। अतएव बहुत से किशोर बालक अनेक प्रकार की कामुक क्रियाएँ अनायास ही करने लगते हैं। जब पहले पहल बड़े लोगों को इसकी जानकारी होती है तो वे चौंक से जाते हैं। आधुनिक मनोविश्लेषण विज्ञान ने बालक की किशोर अवस्था की कामचेष्टा को स्वाभाविक बताकर, अभिभावकों के अकारण भय का निराकरण किया है। ये चेष्टाएँ बालक के शारीरिक विकास के सहज परिणाम हैं। किशोरावस्था की स्वार्थपरता कभी कभी प्रौढ़ अवस्था तक बनी रह जाती है। किशोरावस्था का विकास होते समय किशोर को अपने ही समान लिंग के बालक से विशेष प्रेम होता है। यह जब अधिक प्रबल होता है, तो समलिंगी कामक्रियाएँ भी होने लगती हैं। बालक की समलिंगी कामक्रियाएँ सामाजिक भावना के प्रतिकूल होती हैं, इसलिए वह आत्मग्लानि का अनुभव करता है। अत: वह समाज के सामने निर्भीक होकर नहीं आता। समलिंगी प्रेम के दमन के कारण मानसिक ग्रंथि मनुष्य में पैरानोइया नामक पागलपन उत्पन्न करती है। इस पागलपन में मनुष्य एक ओर अपने आपको अत्यंत महान व्यक्ति मानने लगता है और दूसरी ओर अपने ही साथियों को शत्रु रूप में देखने लगता है। ऐसी ग्रंथियाँ हिटलर और उसके साथियों में थीं, जिसके कारण वे दूसरे राष्ट्रों की उन्नति नहीं देख सकते थे। इसी के परिणामस्वरूप द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ा।

किशोर बालक उपर्युक्त मन:स्थितियों को पार करके, विषमलिंगी प्रेम अपने में विकसित करता है और फिर प्रौढ़ अवस्था आने पर एक विषमलिंगी व्यक्ति को अपना प्रेमकेंद्र बना लेता है, जिसके साथ वह अपना जीवन व्यतीत करता है।

कामवासना के विकास के साथ साथ मनुष्य के भावों का विकास भी होता है। किशोर बालक के भावोद्वेग बहुत तीव्र होते हैं। वह अपने प्रेम अथवा श्रद्धा की वस्तु के लिए सभी कुछ त्याग करने को तैयार हो जाता है। इस काल में किशोर बालकों को कला और कविता में लगाना लाभप्रद होता है। ये काम बालक को समाजोपयोगी बनाते हैं।

किशोर बालक सदा असाधारण काम करना चाहता है। वह दूसरों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करना चाहता है। जब तक वह इस कार्य में सफल होता है, अपने जीवन को सार्थक मानता है और जब इसमें वह असफल हो जाता है तो वह अपने जीवन को नीरस एवं अर्थहीन मानने लगता है। किशोर बालक के डींग मारने की प्रवृत्ति भी अत्यधिक होती है। वह सदा नए नए प्रयोग करना चाहता है। इसके लिए दूर दूर तक घूमने में उसकी बड़ी रुचि रहती है।

किशोर बालक का बौद्धिक विकास पर्याप्त होता है। उसकी चिंतन शक्ति अच्छी होती है। इसके कारण उसे पर्याप्त बौद्धिक कार्य देना आवश्यक होता है। किशोर बालक में अभिनय करने, भाषणा देने तथा लेख लिखने की सहज रुचि होती है। अतएव कुशल शिक्षक इन साधनों द्वारा किशोर का बौद्धिक विकास करते हैं।

किशोर बालक की सामाजिक भावना प्रबल होती है। वह समाज में सम्मानित रहकर ही जीना चाहता है। वह अपने अभिभावकों से भी सम्मान की आशा करता है। उसके साथ 10, 12 वर्ष के बालकों जैसा व्यवहार करने से, उसमें द्वेष की मानसिक ग्रंथियाँ उत्पन्न हो जाती हैं, जिससे उसकी शक्ति दुर्बल हो जाती है और अनेक प्रकार के मानसिक रोग उत्पन्न हो जाते हैं।

बालक का जीवन दो नियमों के अनुसार विकसित होता है, एक सहज परिपक्वता का नियम और दूसरा सीखने का नियम। बालक के समुचित विकास के लिए, हमें उसे जल्दी जल्दी कुछ भी न सिखाना चाहिए। सीखने का कार्य अच्छा तभी होता है जब वह सहज रूप से होता है। बालक जब सहज रूप से अपनी सभी मानसिक अवस्थाएँ पार करता है तभी वह स्वस्थ और योग्य नागरिक बनता है। कोई भी व्यक्ति न तो एकाएक बुद्धिमान होता है और न परोपकारी बनता है। उसकी बुद्धि अनुभव की वृद्धि के साथ विकसित होती है और उसमें परोपकार, दयालुता तथा बहादुरी के गुण धीरे धीरे ही आते हैं। उसकी इच्छाओं का विकास क्रमिक होता है। पहले उसकी न्यून कोटि की इच्छाएँ जाग्रत होती हैं और जब इनकी समुचित रूप से तृप्ति होती है तभी उच्च कोटि की इच्छाओं का आविर्भाव होता है। यह मानसिक परिपक्वता के नियम के अनुसार है। ऐसे ही व्यक्ति के चरित्र में स्थायी सद्गुणों का विकास होता है और ऐसा ही व्यक्ति अपने कार्यों से समाज को स्थायी लाभ पहुँचाता है।

किशोरावस्था की प्रवृतियां एवं लक्षण

 मानव विकास की चार अवस्थाएं मानी गयी हैं बचपन, किशोरावस्था,युवावस्था और प्रौढावस्था। यह विकास शारीरिक, मानसिक और सामाजिक रूप में होता रहता है। किशोरावस्था सबसे अधिक परिवर्तनशील अवधी है। किशोरावस्था के निम्लिखित महत्वपूर्ण लक्षण इसकी अन्य अवस्थाओं से भिन्नता को प्रकट करते हैं-

क)   शारीरिक परिवर्तन
किशोरावस्था में तीव्रता से शारीरिक विकास और मानसिक परिवर्तन होते हैं। विकास की प्रक्रिया के कारण अंगों में भी परिवर्तन आता है, जो व्यक्तिगत प्रजनन परिपक्वता को प्राप्त करते हैं। इनका सीधा सम्बन्ध यौन विकास से है।

ख)   मनौवैज्ञानिक परिवर्तन
किशोरावस्था मानसिक, भौतिक और भावनात्मक परिपक्वता के विकास की भी अवस्था है। एक किशोर, छोटे बच्चे की तरह किसी दूसरे पर निर्भर रहने की उपेक्षा, प्रौढ़ व्यक्ति की तरह स्वतंत्र रहने की इच्छा प्रकट करता है। इस समय किशोर पहली बार तीव्र यौन इच्छा का अनुभ करता है, इसी कारण विपरीत लिंग के प्रति आकर्षित रहता है। इस अवस्था में किशोर मानसिक तनाव से ग्रस्त रहता है यह अवस्था अत्यंत संवेदनशील मानी गयी है।

ग)   सामाजिक सांस्कृतिक परिवर्तन
किशोरों में सामजिक-सांस्कृतिक मेलजोल के फलस्वरूप कुछ और परिवर्तन भी आते हैं। सामान्यता: समाज किशोरों की भूमिका को निश्चित रूप में परिभाषित नहीं करता। फलस्वरूप किशोर बाल्यावस्था और प्रौढावस्था के मध्य अपने को असमंजस की स्थिति में पाते हैं। उनकी मनौवैज्ञानिक आवश्यकताओं को समाज द्वार महत्व नहीं दिया जाता, इसी कारण उनमें क्रोध, तनाव एवं व्यग्रता की प्रवृतिया उत्पन्न होती हैं। किशोरावस्था में अन्य अवस्थाओं की उपेक्षा उत्तेजना एवं भावनात्मकता अधिक प्रबल होती है।




विकास की अवस्थाएं
किशोरावस्था के तीन चरण हैं - 
क)      पूर्व किशोरावस्था
ख)      मूल किशोरावस्था 
ग)       किशोरावस्था का अंतिम चरण 

यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि विकास निर्धारित नियमानुसार ही नहीं होता इसी कारण तीनों चरण एक-दूसरे की सीमाओं का उल्लंघन करते हैं।

क)      पूर्व किशोरावस्था
विकास की यह अवस्था किशोरावस्था का प्रारंभिक चरण है। पूर्व किशोरावस्था के इस चरण में शारीरिक विकास अचानक एवं झलकता है। यह परिवर्तन भिन्न किशोरों में भिन्न-भिन्न प्रकार से होता है। इस समय टांगों और भुजाओं की लम्बी हड्डियों का विकास तीव्रता से होता है। किशोर की लम्बाई 8 से 9 इंच तक प्रतिवर्ष बढ़ सकती है। लिंग-भेद के कारण लम्बाई अधिक बढ़ती है। इस समय किशोर तीव्र सामाजिक विकास और अपने में गतिशील यौन विकास का अनुभव  करते हैं। वे अपने समवय समूहों में जाने की चेष्टा करते हैं। इस स्तर पर प्यारे दोस्तों का ही महत्व रह जाता है। किशोर अपने-अपने लिंग से सम्बंधित समूहों का निर्माण करते हैं। यौन सम्बंधित सोच एवं यौन प्रदर्शन इस स्तर पर प्रारंभ हो जाता है। कुछ अभिभावक इस सामान्य वयवहार को स्वीकृत नहीं करते और किशोरों को दोषी ठहराते हैं। विकास के इस चरण में शारीरिक परिवर्तन से किशोर प्राय: घबरा जाते हैं। वे सामाजिक- सांस्कृतिक सीमाओं और यौन इच्छाओं के मध्य संतुलन बनाने का प्रयास करते हैं।

ख)      मूल किशोरावस्था 
किशोरावस्था का यह चरण शारीरिक, भावनात्मक और बौधिक क्षमताओं के विकास को दर्शाता है। इस चरण में यौन लक्षणों का विकास जारी रहता है तथा प्रजनन अंग, शुक्राणु उत्पन्न करने में सक्षम हो जाते हैं। इस समय किशोर अपने को अभिभावकों से दूर रखने का प्रयास करते हैं। वह प्राय: आदर्शवादी बनते हैं और यौन के विषय में जाने की उनकी रुचि निरंतर बढ़ती रहती है। किशोर के विकास का यह चरण प्रयोग और साहस से भरा होता है। प्रत्येक किशोर अपने से विपरीत लिंग और समवाय समूहों से सम्बन्ध रखना चाहता है। किशोर इस चरण में समाज में अपने अस्तित्व को जानना चाहता है और समाज को अपना योगदान देना चाहता है। किशोर की मानसिकता इस स्थिति में और अधिक जटिल बन जाती है। उसकी भावना गहरी और घनिष्ट हो जाती है और उनमें निर्णय लेने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है।

ग)       किशोरावस्था का अंतिम चरण 
किशोरावस्था के इस चरण में अप्रधान यौन लक्षण भली प्रकार से विकसित हो जाते हैं और यौन अंग प्रौढ़ कार्यकलाप में भी सक्षम हो जाते हैं। किशोर समाज में अपनी अलग पहचान और स्थान की आकांशा रखता है। उनकी यह पहचान बाहरी दुनिया के वास्तविक दृश्य से अलग ही होती है। इस समय उनका समवाय समूह कम महत्व रखता है क्योंकि अब मित्रों के चयन की प्रवृति अधिक होती है।

किशोर इस समय अपने जीवन के लक्ष्य को समक्ष रखता है। हालांकि आर्थिक रूप से वह कई वर्षों तक अभिभावक पर ही निर्भर करता है। इस चरण में किशोरे सही व गलत मूल्यों की पहचान करता है तथा उसके अन्दर नैतिकता इत्यादि भावनाओं का विकास होता है। इस समय किशोर अपना भविष्य बनाने के अभिलाषी होते हैं। उपयुक्त कार्य के लिए वे अभिभावकों एवं समाज का समर्थन चाहते हैं ताकि उनके द्वारा उपेक्षित कार्यों का सम्पादन हो।

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किशोरावस्था की समस्याएं

 किशोरावस्था एक ऐसी संवेदनशील अवधि है जब व्यक्तित्व में बहुत महत्वपूर्ण परिवर्तन आते हैं। वे परिवर्तन इतने आकस्मिक और तीव्र होते हैं कि उनसे कई समस्याओं का जन्म होता है। यघपि किशोर इन परिवर्तनों को अनुभव तो करते हैं पर वे प्राय: इन्हें समझने में असमर्थ होते हैं। अभी तक उनके पास कोई ऐसा स्रोत उपलब्ध नहीं है जिसके माध्यम से वे इन परिवर्तनों के विषय में वैज्ञानिक जानकारी प्राप्त कर सकें। किन्तु उन्हें इन परिवर्तनों और विकास के बारे में जानकारी चाहिए,इसलिये वे इसके लिए या तो सम-आयु समूह की मदद लेते हैं, या फिर गुमराह करने वाले सस्ते साहित्य पर निर्भर हो जाते हैं। गलत सूचनाएं मिलने के कारण वे अक्सर कई भ्रांतियों का शिकार हो जाते हैं जिससे उनके व्यक्तित्व विकास पर कुप्रभाव पड़ता है।

किशोरों को इसलिये भी समस्याएं आते है क्योंकि वे विपरीत लिंग के प्रति एकाएक जाग्रत रुचि को ठीक से समझ नहीं पाने। माँ बाप से दूर हटने की प्रवृति और सम-आयु समूह के साथ गहन मेल-मिलाप भी उनके मन में संशय और चिंता पैदा करता है। किन्तु परिजनों के उचित मार्गदर्शन के अभाव में उन्हें सम-आयु समूह की ही ओर उन्मुख होना पड़ता है। प्राय: देखा गया है कि किशोर सम-आयु समूह के दबाव के सामने विवश हो जाते हैं और उन में से कुछ तो बिना परिणामों को सोचे अनुचित कार्य करने पर मजबूर हो जाते हैं। कुछ सिगरेट, शराब, मादक द्रव्यों का सेवन करने लगते हैं और कुछ यौनाचार की ओर भी आकर्षित हो जाते हैं और इस सब के पीछे सम-आयु समूह का दबाव आदि कई कारण हो सकते हैं।




किशोरावस्था शिक्षा जरूरी क्यों?

किशोरावस्था शिक्षा विद्यार्थियों के किशोरावस्था के बारे में जानकारी प्रदान करने की आवश्यकता के सन्दर्भ में उभरी एक नवीन शिक्षा का नाम है। किशोरावस्था जो कि बचपन और युवावस्था के बीच का परिवर्तन काल है, को मानवीय जीवन की एक पृथक अवस्था के रूप में मान्यता केवल बीसवीं शताब्ती के अंत में ही मिला पायी। हजारों सालों तक मानव विकास की केवल तीन अवस्थाएं - बचपन, युवावस्था और बुढ़ापा ही मानी जाती रही है। कृषि प्रधान व ग्रामीण संस्कृति वाले भारतीय व अन्य समाजों में यह धारणा है कि व्यक्ति बचपन से सीधा प्रौढावस्था में प्रवेश करता है। अभी तक बच्चों को छोटी आयु में ही प्रौढ़ व्यक्तियों के उत्तरदायित्व को समझने और वहां करने पर बाध्य किया जाता रहा है। युवक पौढ पुरुषों के कामकाज में हाथ बंटाते रहे हैं और लडकियां घर के। बाल विवाह की कुप्रथा तो बच्चों को यथाशीग्र प्रौढ़ भूमिका में धकेल देती रही है। विवाह से पूर्व या विवाह होते ही बच्चों को यह जाने पर बाध्य किया जाता रहा है कि वे प्रौढ़ हो गए हैं।

लेकिन अब कई नवीन सामाजिक और आर्थिक धारणाओं की वजह से स्थिति में काफी परिवर्तन आ गया है। शिक्षा और रोजगार के बढ़ते हुए अवसरों के कारण विवाह करने की आयु भी बढ़ गयी है। ज्यादा से ज्यादा बच्चे घरों और कस्बों से बाहर निकल कर प्राथमिक स्तर से आगे शिक्षा प्राप्त करते हैं। उनमें से अधिकतर शिक्षा व रोजगार की खोज में शहरों की ओर पलायन कर जाते हैं। देश के अधिकतर भागों में बाल विवाह की घटनाएं न्यूनतम स्तर पर पहुँच गयी है। लडकियां भी बड़ी संख्या में शिक्षा ग्रहण कर रही हैं। जिसके फलस्वरूप वे भी शीग्र ही वैवाहिक बंधन में बंधना नहीं चाहतीं। इस मानसिक परिवर्तन में संचार माध्यमों की भी महती भूमिका रही है। एक ओर विवाह की आयु में वृद्धि हो गयी है और दूसरी ओर बच्चों में बेहतर स्वास्थ और पोषण सुविधाओं के कारण यौवानारम्भ निर्धारित आयु से पहले ही हो जाता है। इन परिवर्तनों के कारण बचपन और प्रौढावस्था में काफे अंतर पढ़ गया है। इस कारण अब व्यक्ति की आयु में एक ऐसी लम्बी अवधि आती है जब उसे न तो बच्चा समझा जाता है और न ही प्रौढ़ का दर्जा दिया जाता है। जीवन के इसी काल को किशोरावस्था कहते हैं।
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